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कविता

नेका के किनारे : कुछ विचार

सदानंद शाही


(2003) में कुछ महीने जर्मनी के हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में था , हाइडेलबर्ग के बीचोबीच बहने वाली नदी नेका - नेका नाम की नदी शहर को और रोमांटिक बनाती है , उसी के किनारे किसी शनिवार की शाम...)

नेका के किनारे बैठा हूँ चुपचाप
किनारे खड़े एक पेड़ से पीठ टिकाए

पेड़ जिसे मैं जानता तो था
पहचानता नहीं था
एक दोस्त की तरह मिला
इस बात से बेपरवाह कि मैं उसे जानता भी हूँ या नहीं
उसने मुझे पीठ टिकाने की जगह दे दी

क्या दुनिया के सारे पेड़ एक से उदार होते हैं ?

आखें बंद किए किए
महसूस कर रहा था
नेका के बहते हुए पानी को
आश्वस्त करती लहरों को
लहरों के साथ बहता हुआ
पहुँच गया गंगा किनारे

क्या दुनिया की सारी नदियाँ एक सी वत्सल होती हैं ?

मैं लहरों के साथ बहता चला जा रहा था
कि दो बच्चों के बात करने की आवाज कानों में पड़ी
बच्चे जिस जुबान में बोल रहे थे
मेरे लिए अजनबी थी

अचानक एक चिर परिचित आवाज से मेरी आँखें खुलीं
मैंने देखा
बच्चे सूखी टहनियाँ लिए
पानी से खेल रहे थे
छपर छपर कर रहे थे
खुश हो रहे थे
किलक रहे थे
अब मुझे बच्चों की बातें समझ में आ रही थीं

क्या दुनिया के सारे बच्चे एक ही जुबान बोलते हैं?

 


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